Friday, November 06, 2009

हिन्दी तो हिन्दी, अब भोजपुरी का भी जलवा


हिन्दी यूँ तो आबादी के हिसाब से चीनी भाषा के बाद दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी भाषा है, लेकिन इसे एक पिछड़े और बहुभाषी-बहुधर्मी देश की भाषा होने का खामियाजा हमेशा से भुगतना पड़ा है। लेकिन अब स्थितियाँ बदल रही हैं। जैसे-जैसे हिन्दी पट्टी में शिक्षा का प्रसार हो रहा है और लोगों की आर्थिक स्थिति सुधर रही है, वह बाज़ार की नज़र में चढ़ती जा रही है। पिछले एक-दो दशक तक बाज़ार से दूर-दूर रहने वाली हिन्दी अब बाज़ार का इस्तेमाल कर आगे बढ़ना सीख रही है। अब हिन्दी तो हिन्दी, उसकी बोलियाँ भी, ख़ासकर भोजपुरी तो बाज़ार को ख़ासा लुभा रही है। आज भोजपुरी में कई टीवी चैनल खुल गए हैं और ये सब के सब ज़बर्दस्त कारोबार कर रहे हैं। इस वक़्त जब मैं ये लघु-टिप्पणी लिख रहा हू, तब मैं लोकप्रिय भोजपुरी चैनल "महुआ" देख रहा हूँ। इस वक़्त इसपर "सुर-संग्राम" कार्यक्रम के फाइनल का सीधा प्रसारण चल रहा है, पटना के गांधी मैदान से।

कार्यक्रम में लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान और कृपाशंकर सिंह भी दर्शक दीर्घा में बैठे दिखाई दे रहे हैं, जबकि मनोज तिवारी और रवि किशन ने मंच संभाल रखा है। बिहार और उत्तर प्रदेश में जन-जन के दिलो-दिमाग पर राज करने वाली बेमिसाल लोक-गायिका शारदा सिन्हा की मौजूदगी कार्यक्रम को अतिरिक्त गरिमा प्रदान कर रही है। इस कार्यक्रम को देखने के लिए लाखों की संख्या में लोग पटना के गांधी मैदान में जमा हुए हैं। और मैं यकीनन कह सकता हूँ कि इस ऐतिहासिक मैदान में मौजूद उन लाखों लोगों के अलावा करोड़ों लोग इस वक़्त टीवी पर ये कार्यक्रम देख रहे होंगे।

हिन्दी और हिन्दी की बोलियों में यह आत्मविश्वास पहली बार इतना मज़बूत दिखाई देता है। निश्चित रूप से हिन्दी की सबसे बड़ी ताकत उसे बोलने वाले लोगों की आबादी ही है, जो अब पूरी दुनिया में फैल चुकी हैं और अपनी योग्यता का लोहा मनवा रही है। हालांकि अभी भी हिन्दी और उसकी बोलियों को ये साबित करना है कि वह सिर्फ़ लोक-मनोरंजन की भाषा ही नहीं है और उसे सिर्फ़ कमज़ोर तबकों और निम्न मध्यम वर्ग के लोग ही नहीं बोलते। इसके लिए हिन्दी में चौतरफा काम की ज़रूरत है- साहित्य के अलावा ज्ञान-विज्ञान की तमाम विधाओं में। साथ ही अपनी भाषा के प्रति हीन भावना अब हमें छोड़ देनी चाहिए, क्योंकि अब आप ये आरोप भी नहीं लगा सकते कि हिन्दी लोगों को रोज़गार नहीं दिला सकती। अब तो भारत ही नहीं, दुनिया के दूसरे देशों में भी हिन्दी बड़ी संख्या में लोगों को रोज़गार दिला रही है। अच्छी बात ये भी है कि इंटरनेट पर हिन्दी बोलने वाले लोगों की आवाजाही भी तेज़ी से बढ़ रही है, हालाँकि हिन्दी पट्टी में फैली गरीबी और बुनियादी सुविधाओं की कमी इसे अब भी दुनिया के सामने आने से रोक रही है। लेकिन हमें उम्मीद नहीं छोड़नी है और पूरे जी-जान से हिन्दी के लिए लगातार काम करते रहना है।

लेखक की वेबसाइट का पता- http://www.abhiranjankumar.com/

प्रभाष जी को श्रद्धांजलि!


हिन्दी पत्रकारिता के युगपुरुष प्रभाष जोशी हम सबको अनाथ करके चले गए हैं। इस वक्त उनसे बड़ी कोई हस्ती हमारी दुनिया में नहीं था और उनका अचानक इस तरह हमें छोड़कर चला जाना इसलिए भी एक बहुत बड़े झटके जैसा है, क्योंकि चाहे वो प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया- ये दोनों इस वक़्त पूरी तरह बाज़ार के हाथों में खेल रहे हैं और जैसे उन्होंने अपने सारे सरोकार, सारी नैतिकताओं को ताक पर रख दिया है। हम जैसे पत्रकारों के लिए इस निराशाजनक परिदृश्य में प्रभाष जी की आवाज़ एक रोशनी का काम करती थी।अभी पिछले लोकसभा चुनाव में जब हिन्दी के ज़्यादातर बड़े अखबार ख़बरों की सौदेबाज़ी पर उतर आए, तो प्रभाष जी ने मुखर होकर उनका विरोध किया। अब विरोध की वह आवाज़, जो हमें पथभ्रष्ट होने से बचाने की चेष्टा कर रही थी, गुम हो गई है। किसी बड़ी हस्ती के जाने पर हमेशा उसे अपूरणीय क्षति बताने की औपचारिकता की जाती रही है, लेकिन प्रभाष जी के निधन से सचमुच एक शू्न्य-सा आ गया है। इंस्टैंट पब्लिसिटी के इस ज़माने में प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में इस वक़्त भी कई सारे बड़े नाम तैयार हो गए हैं, लेकिन प्रभाष जी वाली ईमानदारी, दृढ़ता और पत्रकारिता के सरोकारों के लिए अडिग रहने की प्रवृत्ति किसी और में नहीं दिखाई देती। क्रिकेट प्रभाष जी का सबसे बड़ा जुनून था। क्रिकेट पर उनकी कई रपटें, आलेख और विश्लेषण तो हमें नियमित रूप से पढ़ने को मिलते रहते थे, लेकिन किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि यही क्रिकेट एक दिन उनकी साँसें छीन लेगा। भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच पांचवें वनडे में सचिन का आउट होना और भारत की हार वो झेल नहीं पाए और अपनी आखिरी साँस भी क्रिकेट के नाम कर गए। उन्हें मेरी श्रद्धांजलि!

Monday, November 02, 2009

तथाकथित धर्मनिरपेक्षों, बुद्धिजीवियों और सामाजिकों का कच्चा चिट्ठा

सिख दंगों के 25 साल हो गए, करीब तीन हज़ार निर्दोष लोग बेदर्दी से क़त्ल कर दिए गए, लेकिन इंसाफ़ किस चिड़िया का नाम है, क्या आपको मालूम है? अफ़सोस की बात ये है कि धर्म के नाम पर देश के इतिहास का ये सबसे बड़ा क़त्लेआम उन लोगों ने किया, जो माथे पर धर्मनिरपेक्षता की पट्टी चिपकाकर घूम रहे हैं। मैं देश और दुनिया के किसी भी हिस्से में किसी भी मकसद के लिए हुई ऐसी हिंसा की घोर भर्त्सना करता हूँ, जिसमें बेगुनाहों की जान जाती हो। मेरी नज़र में हर इंसानी जान की कीमत बराबर है, चाहे वो हिन्दू की जान हो, या मुसलमान की, या सिख या ईसाई की, लेकिन क्या हमारे देश के तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दल और लोग ऐसा मानते हैं? अगर मानते होते तो फिर क्या बात थी कि गुजरात दंगे पर इंसानियत के पुतले बने ये लोग 1984 के सिख दंगों की चर्चा तक नहीं करना चाहते। कहाँ है इंसाफ आज 25 साल बाद? माफ़ करें, आप मुझे जो भी समझें, मेरी नज़र में इस देश के तथाकथित धर्मनिरपेक्ष और तथाकथित सांप्रदायिक दल- सब एक जैसे हैं, उनमें कोई फर्क नहीं है। मेरी यही पीड़ा मेरी कविता "बुद्धिजीवी की दुकान" में व्यक्त हुई है। यह कविता 2003 में लिखी गई और 2006 में प्रकाशित मेरे दूसरे काव्य-संग्रह "उखड़े हुए पौधे का बयान" में संकलित है। कृपया आप भी इसे देखें-

बुद्धिजीवी की दुकान

"मैं गुजरात में 1,000 मुसलमानों के क़ातिलों को साम्प्रदायिक कहूँ / और दिल्ली में 3,000 सिखों के हत्यारों को धर्मनिरपेक्ष तो चौंकना मत/ क्रिया के बाद प्रतिक्रिया सिद्धांत देने वाले मुख्यमंत्री को दंगाई कहूँ/ और बड़ा पेड़ गिरने के बाद धरती हिलने का सिद्धांत देने वाले / प्रधानमंत्री को मिस्टर क्लीन / तो भी कर लेना यक़ीन।

जिन्होंने पचास साल में एक भी दंगापीड़ित को न्याय नहीं दिलाया/ जिन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के इंसाफ़ को दिखा दिया ठेंगा- / उनकी आरती उतारूँगा मैं / और अपनी प्रतिबद्धता साबित करने के लिए / गिनूँगा सिर्फ़ दूसरे पक्ष के कुकर्म/ मेरी नज़र में मस्जिद ढहाने वाले तो साम्प्रदायिक हैं / लेकिन राजनीतिक फ़ायदे के लिए / मंदिर का ताला खुलवाने वाले दूध के धुले

मैं भूल जाता हूँ कि अंग्रेजों की फूट डालो और शासन करो की नीति / इस देश के सभी सत्तालोलुपों में एक-सी लोकप्रिय है / और सबने सेंकी हैं जलती चिताओं पर स्वार्थ की रोटियाँ / उत्तर से दक्षिण तक, पूरब से पश्चिम तक / जो शातिर हैं, वो जा कर उन चिताओं पर बहा आते हैं आँसू / जो दुस्साहसी, वो दूर से करते हैं अट्टहास / पर सत्ता दोनों को चाहिए अपने पास।

जानता हूँ कि मेरी कानी सोच से कभी ख़त्म नहीं होगी साम्प्रदायिकता / फिर भी दो साम्प्रदायिकों की लड़ाई में मुझे एक को धर्मनिरपेक्ष कहना है / आख़िर मुझे भी इस बाज़ार में रहना है ! "

पूरी कविता पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।

लेखक की साइट का होम पेज- http://www.abhiranjankumar.com